शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स और अर्थ – शिवताण्डवस्तोत्रम्

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स जिसे अक्सर शिव तांडव स्तोत्र कहा जाता है, एक अद्वितीय और मंत्रमुग्ध करने वाला हिम्न है जो भगवान शिव के दिव्य नृत्य की स्तुति में रचा गया है। यह पवित्र रचना भगवान शिव के ब्रह्मांडिक नृत्य की शानदारता को समेटती है, उनकी अतीत शक्ति और अनुग्रह की महिमा को दर्शाती है। “शिव तांडव स्तोत्र” में गहरी भक्ति और श्रद्धा की आवाज़ है, इसके पंक्तियों में भगवान शिव की परम गुणों की महिमा का संगीत बजता है जैसे दिव्य संगीत की तरह।

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स की पंक्तियों में स्वर्गीय चित्रण खगोलीय नृत्य की बेहद जीवंत छवि को दिखाता है। पंक्तियों की धाराओं का ताल मनोबलबद्ध दिव्य नृत्य की खुद की चाल की तरह होता है, जो उसकी ब्रह्मांडिक नृत्य की चाल की तरह गति और शांति की भावना को उत्केंद्रित करता है। शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स भगवान शिव के झुलसते जटाओं की तालमेल का वर्णन करते हैं, उनके ढोल की तरह कदमों की गरजन का वर्णन करते हैं, और उनके महान रूप से बिजली जैसी प्रकाशमयता का वर्णन करते हैं।

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स की पंक्तियों के बीच “शिव तांडव स्तोत्र” शब्द एक बार फिर बार-बार प्रकट होता है, यह एक दिव्य पुकार की भाषा के रूप में कार्य करता है जो हिम्न के मुख्य विषय को मजबूत करता है। हर बार के साथ, यह पवित्र मंत्र की तरह का शब्द उस पवित्र मंत्र की तरह काम करता है जो भगवान शिव के शाश्वत नृत्य के लिए भक्ति और सराहना की धारा को मिलाता है।

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स पढ़ने वालों को भगवान शिव की दिव्य नृत्य की ओर एक आध्यात्मिक उत्साह की दिशा में ले जाता है, उन्हें साक्षात देखने के लिए आमंत्रित करता है, उन्हें जगत के उच्चतम सृजन, संरक्षण और प्रलय के अनन्त चक्र के साथ जुड़ने के लिए एक वाहन बनाता है। जब कोई इसकी पंक्तियों का उच्चारण और विचार करता है, तो शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स भगवान शिव के दिव्य ऊर्जा और ब्रह्मांड की संगीतमय गति में विचलित होने का माध्यम बनता है, भक्तों को दिव्य ऊर्जा में और दिव्य तालमेल में डूबने की स्वीकृति देता है।

आखिरकार, “शिव तांडव स्तोत्र” सर्वोच्च देवता, भगवान शिव, और उनके आदि और अंत की नृत्य की बड़ी गान है। यह दिव्य संगीत की एक बेजोड़ ओड़ है जो सृजन, संरक्षण और प्रलय के शाश्वत चक्र की प्रतिबद्धता की याद दिलाती है। यह भक्तों को उस दिव्य प्रतिष्ठा से जोड़ने का एक साधन बनती है जो ब्रह्मांड की संगीतमय सिमटती ऊर्जा और दिव्य तालमेल में बसी है।

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌ ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥॥

अर्थ ; इस पंक्ति का अर्थ: भगवान शिव के सिर पर जटा में गंगा का पावन प्रवाह बहता है, उनकी माथे पर चांद्रमा एक सर्प की तरह लटकता है। वे डमड्डम के ध्वनि से शब्दित होते हैं, और उन्होंने चण्डताण्डव का नृत्य किया, हमें उन पर आशीर्वाद दें।

शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स यह पंक्ति भगवान शिव की विशेषताओं का सुंदर वर्णन करती है, उनके शिरोमुखी जटा, बहती गंगा, चांद्रमा और ध्वनिक ड्रम्स की छवि को उजागर करती है। यह पंक्ति हिम्मतवरी और प्रभावशाली भगवान शिव की मौजूदगी को आकर्षित करने के लिए आत्मा को तैयार करती है।

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनी ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥॥

अर्थ ; इस पंक्ति का अर्थ: जटा के विभ्रम से हिलती हुई और अंशुविंशति-सुधा धाराओं से बिना हारा अपने मस्तक पर विराजमान चंद्रमा के समान उपशीर्षक पर जिसकी माथे की लकीरें आभूषित हैं, उस किशोरचन्द्रशेखर की प्रतिक्षा करता हूं, जो शीतलता के साथ धगधग ध्वनियों वाली आग के पट्टे की भान है।

यह पंक्ति भगवान शिव के श्रृंगार की अद्वितीय छवि का चित्रण करती है, जिनमें वे चंद्रमा की तरह अपने मस्तक पर झूलते हैं और उनकी माथे पर आभूषित लकीरें होती हैं। यह पंक्ति उनके चंद्रशेखर रूप की सुंदर छवि को व्यक्त करती है जो धगधग ध्वनियों के साथ उच्चारित आग की तरह चिरकालिक आकर्षण का प्रतीक है।

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥॥

अर्थ ; इस पंक्ति का अर्थ: मेरे मन के विनोद के लिए श्रीकृष्ण के सखा धराधरेश्वरी (पर्वतराज हिमालय की पुत्री जिन्हें श्रीकृष्ण ने बन्धु बनाया), विलासी (मनोहर), बन्धुर (मित्र), दिगंत की आकाशमण्डल में चमकते हुए, मनोबल और आत्म-मान के प्रमोद के साथ, कृपाकटाक्ष के धारण करने वाली, जिसने नीलकण्ठ के पैरों को नीचे दबाया, जब वह जालंधर के बल में जकड़ गया था, वही धराधरेन्द्रनंदिनी के संकेत द्वारा मनोबल और आत्म-मान की वृद्धि करने वाले भगवान शिव है, उनके दर्शन करने की कभी क्षणिक कामना करता हूं, जिन्होंने कभी किसी अन्य वस्तु में अपना मन नहीं डाला।

यह पंक्ति भगवान शिव के विभिन्न गुणों का चित्रण करती है, उनके विलासी, मनोहर, और मनोबल बढ़ाने वाले स्वरूप को दिखाती है, जो कृपाकटाक्ष के साथ उनके पाद की धारण की उपमा करते हैं। यह पंक्ति भगवान शिव के दर्शन की कभी थोड़ी सी आशा का वर्णन करती है, जिन्होंने किसी भी अन्य वस्तु में अपना मन नहीं डाला।

जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥॥

अर्थ ; इस पंक्ति का अर्थ: हे भूतभर्ता (शिव), तुम जिनकी जटाओं में सर्प जैसे लम्बी भुजाएँ हैं, जिनकी मुद्रा मणियों के समान प्रकाशित हो रही है, जिनके वामन भाग में कदम्ब के फूलों की सुगंधा और कुङ्कुम के रस की लहर बस रही है, जिनका मुख मध्यकालीन सौंदर्य से चिपका हुआ है, जिनकी तिलक विशेष अभिमान से दमक रहा है, और जिनके ऊपरी भाग में मद से अंधेरे हो रहे हैं, उनका मन विचरण करने में प्रसन्न हो। भगवान शिव, तुम्हारी विचित्र छवि जिनके मन में विचरण का आनंद लेती है, वे तुम्हारे ऊपरी भाग में बड़ी चमकदार अद्भुत तिलक के रूप में बाधित हैं।

यह पंक्ति भगवान शिव की अनूठी छवि का चित्रण करती है, जिनके मुद्रा मणियों की तरह प्रकाशित होती है, जिनके वामन भाग में सुगंधा और रस की लहरों की अंशुविंशति दिख रही है, और जिनकी भानु भाग में सौंदर्य की अत्युत्तमता छिपी है।

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥॥

अर्थ ; इस पंक्ति का अर्थ: हजार आंखों वाले, श्रीकृष्ण के अनुयायियों के शेषलेखों के राजा, फूलों के धूल से लिपटे हुए अपने पैरों का आलंब उठाने वाले, भुजंगराज के माला के साथ जो अपने जटाओं को बांधे हुए हैं, उनकी श्री चिरकाल तक बनी रहे, चकोर (चकवा) पक्षियों के मित्र शेखर, वह श्रीकृष्ण जल्दी ही प्रकट हों।

यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के विशेष रूप का चित्रण करती है, जिनके आंखों की असंख्य दृष्टियाँ हैं, जो उनके अनुयायियों की सेवा करते हैं, उनके पैरों के नीचे फूलों की धूल छिपकर बसी है, जिनके पैर धूल को छूने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं, जो अपनी भुजंगराज माला के साथ अपने जटाओं को बांधे हुए हैं, और जिनका चिरकाल तक महिमा बनी रहे, वे चकोर पक्षियों के मित्र शेखर, वह भगवान श्रीकृष्ण जल्द ही प्रकट हों।

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्‌ ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः ॥6॥

अर्थ: जिनकी ललाट पर आभा चारों ओर बह रही है, जिनकी निजी सेना के पश्चिमी धनुष की भानुशालिनी प्रकाशित हो रही है, जिनके हाथ में पांचों ओर से चारों ओर फैले हुए हैं, जिनका पान किया हुआ पांचजन्य धनुष उनके पास है, जो अपनी शोभापूर्ण मुखी श्रीकृष्ण की योग्यता का चित्रण करती है, जिनके माथे पर चंद्रमा की तरह सुधामय शंख में अंतःकरण हो रहा है, जिनके ऊपर विशेष अभिमान वाले कपालक के समृद्धि में हमारा मस्तक लटके।

यह पंक्ति भगवान शिव की महाकपाली रूप की विविधता का चित्रण करती है, जिनकी ललाट पर आभा बह रही है, जिनके हाथ में पांचजन्य धनुष और पंचानन के स्फटिक शंख हैं, जो उनके माथे पर सुधामय शंख की तरह शोभायमान हैं, और जिनके कपालक समृद्धि में हमारे मस्तक को उच्चारित करने की क्षमता देते हैं।

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥

अर्थ: जिनकी कराल भाला उनके मुख में खेल रही है, जिनकी पांचजन्य धनुष के तारों की दिव्यता धड़क-धड़क करती है, जिनके समर्पित किए गए पांच जन्य धनुष के द्वारा यज्ञ के अहुतियों को प्रचण्डता से स्वीकार किया जाता है, जिनके कुच-वर्ग की चित्रित पत्रक में आकर्षण है, जिनकी एक निश्चित कला से निर्मित रचना जिनके मुख पर बसी है, जिनके माथे पर तीनों नेत्रों में रति का आवागमन हो, वह श्रीकृष्ण के प्रति मेरी अत्यधिक प्रेम और आकर्षण हो।

यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के रूप की अनूठी छवि का चित्रण करती है, जिनकी कराल भाला उनके चेहरे पर खेल रही है, जिनकी पांचजन्य धनुष के तारे उनके देखते ही उच्चारण करते हैं, और जिनके कुच-वर्ग की चित्रित पत्रक में आकर्षण है। यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों का चित्रण करती है और उनके प्रति परम प्रेम का व्यक्त करती है।

नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतमःप्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥8॥

अर्थ: जिनके सिर पर नवा और बादल से घिरा हुआ मण्डल है, जिनके दुर्धर दिग्गजनायक गदायुध के स्फटिक गर्दनस्तम्भ में निष्ठा है, जिनके गले में बन्धी रहती है, जिनके हार पर नीलम से झिलमिलाते हुए निर्झरा के समान कृत्तिका ग्रहण करती है, जिनके स्तन में गंगा की समान अद्भुत लहरें हैं, वह श्रीकृष्ण, जो कला का निधान है और संसार की श्री को धारण करने वाले हैं।

यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों का चित्रण करती है, जिनके सिर पर नवे और बादल से घिरा हुआ मण्डल है, जिनके दुर्धर गदायुध के स्फटिक गर्दनस्तम्भ में निष्ठा है, और जिनके स्तन में गंगा की समान अद्भुत लहरें हैं। यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के सामर्थ्य का चित्रण करती है जो संसार की श्री को धारण करने में समर्थ हैं।

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्‌ ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥9॥

अर्थ: जिनके विशाल नील कमलों की प्रपंच काल की आभा से प्रकाशित हो रही है, जिनके गर्दन के कन्धर में अपने लवली उत्तम कान की छाया विराजमान है, जिनकी कन्धरा को आभूषित किया हुआ है, जिनकी छड़ी से स्मरण छिपा हुआ है, जिनके विशाल शरीर को ब्रह्मा द्वारा छिदा हुआ है, जिनके भवरों के द्वारा छिदा हुआ है, जिनके महायज्ञ में छिदा हुआ है, जिनके गजग्राह्य के द्वारा छिदा हुआ है, जिनके अंधकग्राह्य के द्वारा छिदा हुआ है, और जिनके तामन्तकग्राह्य के द्वारा छिदा हुआ है, वह भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करता हूँ।

यह पंक्ति भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों का चित्रण करती है, जिनके शरीर में विशाल नील कमलों की प्रपंच काल की आभा से प्रकाशित हो रही है, जिनके गर्दन के कन्धर में उनके श्रीकृष्ण के कान की छाया विराजमान है, और जिनके विभिन्न रूपों के द्वारा उनकी उपासना का वर्णन किया गया है।

अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्‌ ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥

अर्थ: जिनके आदि, मध्य और अंत में सभी मंगलाओं की कलाएँ हैं, जिनकी मञ्जरी अद्भुत रस के प्रवाह की तरह बहती है, जिनके स्मरण से सतत मधु के समान विकसित होता है, जिनकी मन्द मधुरी विकसित हो रही है, जिनके स्मरण से असुरों का अंत होता है, जिनके स्मरण से संसार का अंत होता है, जिनके स्मरण से महायज्ञों का अंत होता है, जिनके स्मरण से गजों का अंत होता है, और जिनके स्मरण से भगवान्तक का अंत होता है, उन भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥

अर्थ: जिनकी जीत की जयकार, अदभ्र के समान भ्रमने वाली भ्रमद्भुजंगी नाद की ध्वनि, आग से तपते हुए कराल भालों की जयकार, जिनका उद्गम क्रम में होता है, जिनके मुख से कड़कड़ की ध्वनि आती है, जैसे मृदंग की ध्वनि, जिनकी मंगल स्वरुप तांडव नृत्य की प्रारंभिक ध्वनि, जो प्रचण्ड ताण्डव को प्रारंभ करते हैं, वह भगवान शिव हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥

अर्थ: कब मैं सदाशिव का भजन करूँ, जो सब दिशाओं में अपने मित्र-शत्रु के पक्षों को फैलाते हुए दृश्य होते हैं, जिनके विचित्र तलपत्रों से बँधे हुए भुजंगमणि की माला है, जिनके सिर में मुक्ति से बँधे हुए गरिष्ठ रत्नों की माला है, जिनके नेत्रों में सहयोग देने वाले मित्र और शत्रु की दृश्य होती है, जिनके आंखों के पास प्रजा और महीमहेंद्र के लिए पुन्य आश्रय हैं, और जिनके बालकों के चक्षुस् की अवलोकन से तृणारविन्द जैसे नीलकंठ जल की दिशा होती है, उन सदाशिव का भजन करूँ।

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्‌ ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

अर्थ: कब मैं नीलकंठ वन में विचरते हुए निरंतर बहने वाली नीलिम्प जलनिर्मित झील के किनारे बसकर, दुर्मति से मुक्त, सदा मनोबल से सिर पर मञ्जलिमुद्रा लिए हुए, विलोल लोल लोचनों वाले, ललाट में लगने वाले भगवान शिव का मन्त्र जपकर कब मैं सुखी होता हूँ।

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ॥14 ॥

अर्थ: मनुष्य जो यह उत्तमोत्तम स्तव पठता, स्मरण करता और बोलता है, वह सदा विशुद्धि को प्राप्त करता है। भगवान के गुरु में शीघ्र सुभक्ति प्राप्त होती है और किसी अन्य मार्ग से नहीं मिलती, क्योंकि देहीव्यक्तियों का सुंदर शंकर का चिंतन ही मोह है।

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15 ॥

अर्थ: जो व्यक्ति पूजा के समय दशवक्त्र के गीत को पठता है, जो शम्भु की पूजा में रुचि रखता है, और जो प्रदोष काल में इसे पढ़ता है, उसके लिए भगवान शिव स्थिर रथ, हाथी, सिंह, और तुरंगों से युक्त लक्ष्मी को सदैव सुमुखी देते हैं।शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स शम्भु की पूजा

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शिव तांडव स्तोत्र लिरिक्स

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